Tuesday, March 3, 2009

पंखों पे अपने क्यों तुम्हें विश्वास ही नही

पंखों पे अपने क्यों तुम्हें विश्वास ही नही
आकाश का तुमको जरा अहसास ही नहीं

दीवारों दर से भी कहें किससे हम कहें

सुनने को हाल और कोई पास ही नहीं

इस जिंदगी की राह में हैं हर तरह के पेड़

इसमें बबूल भी हैं अमलतास ही नहीं

अपने गमों के दौर की लम्बी है दास्तान

अपनी खुशी का कुछ मगर इतिहास ही नहीं

तुम हो कि कोई और हो इससे नहीं गरज

अब तो किसी का साथ हमें रास ही नहीं

अपने महीने हैं सभी रमजान की तरह

रोजे हमारे रोज हैं कुछ खास ही नहीं

No response to “पंखों पे अपने क्यों तुम्हें विश्वास ही नही”